📰 POCSO केस में सुप्रीम कोर्ट ने दिखाई दया: ‘सिर्फ सज़ा नहीं, समाज में सौहार्द बहाल करना भी कानून का उद्देश्य’
🧾 सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि कानून का मकसद सिर्फ अपराधियों को दंडित करना नहीं, बल्कि समाज में शांति और सौहार्द बहाल करना भी है। कोर्ट ने विवाह कर चुके आरोपी की सजा रद्द की, यह कहते हुए कि अपराध वासना से नहीं, प्रेम से उपजा था।
⚖️ सुप्रीम कोर्ट का मानवीय दृष्टिकोण: “कानून को व्यावहारिक वास्तविकताओं से अलग नहीं किया जा सकता”
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा कि कानून का उद्देश्य केवल दोषियों को दंड देना नहीं, बल्कि समाज में सौहार्द और व्यवस्था की पुनर्स्थापना करना भी है।
यह टिप्पणी करते हुए शीर्ष अदालत ने एक व्यक्ति के खिलाफ दर्ज POCSO अधिनियम (Protection of Children from Sexual Offences Act) के तहत मामला रद्द कर दिया, क्योंकि उसने पीड़िता से विवाह कर लिया था और दोनों का एक पुत्र भी है।
जस्टिस दीपांकर दत्ता और जस्टिस ऑगस्टिन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा —
“न्याय वितरण में विवेक, करुणा और व्यावहारिकता का मिश्रण आवश्यक है। अदालत हर मामले की परिस्थितियों को देखते हुए निर्णय लेती है — जहां सख़्ती जरूरी है, वहां दृढ़ता से और जहां दया आवश्यक है, वहां संवेदनशीलता से।”
👩❤️👨 ‘वासना नहीं, प्रेम का परिणाम’: कोर्ट ने कहा — अपराध परिस्थितिजन्य था
मामले में अपीलकर्ता के. किरुबाकरण को निचली अदालत ने POCSO अधिनियम के तहत 10 साल की सजा सुनाई थी।
हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि पीड़िता अब उसकी कानूनी पत्नी है और दोनों एक स्थिर पारिवारिक जीवन जी रहे हैं।
कोर्ट ने कहा —
“यह अपराध वासना का परिणाम नहीं, बल्कि प्रेम का परिणाम था। अब दोनों एक परिवार हैं और उनके बच्चे का जन्म हो चुका है। ऐसे में अभियुक्त की जेल में बंदी से केवल इस परिवार का ताना-बाना टूटेगा और समाज पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।”
अदालत ने माना कि इस परिस्थिति में सख़्त कानून की कठोरता पर न्याय की करुणा को प्राथमिकता देनी चाहिए।
🧑⚖️ ‘न्याय का उद्देश्य समाज का कल्याण’: सुप्रीम कोर्ट ने दिया संतुलित संदेश
सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में अमेरिकी जस्टिस बेंजामिन एन. कार्डोजो का हवाला देते हुए कहा —
“कानून का अंतिम उद्देश्य समाज का कल्याण है।”
कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण शक्तियों का उपयोग करते हुए कहा कि यह अधिकार इसलिए दिया गया है ताकि कठोर कानून के अनुप्रयोग से अन्याय न हो।
पीठ ने कहा —
“यह ऐसा मामला है, जहां कानून को न्याय के आगे झुकना चाहिए। कठोर कानूनी व्याख्या से मानवता को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।”
👨👩👦 परिवार को बचाने के लिए संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग
कोर्ट ने पाया कि पीड़िता ने स्वयं अदालत के समक्ष कहा कि वह पति और बच्चे के साथ शांतिपूर्ण जीवन जीना चाहती है।
उसने अनुरोध किया कि आगे की कानूनी कार्यवाही से उनके परिवार को नुकसान होगा।
यह देखते हुए, अदालत ने कहा कि मुकदमे को जारी रखना और आरोपी को जेल में रखना, पीड़िता और बच्चे दोनों के हित में नहीं है।
यह भी उल्लेखनीय है कि पीड़िता के पिता ने भी अदालत में कहा कि उन्हें आपराधिक कार्यवाही समाप्त करने पर कोई आपत्ति नहीं है।
📜 ‘समझौते पर नहीं, न्याय और करुणा पर आधारित फैसला’
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि यह मामला किसी समझौते का परिणाम नहीं है, बल्कि “न्याय के हित में मानवीय दृष्टिकोण” अपनाने का उदाहरण है।
“यदि पत्नी की करुणा और सहानुभूति की पुकार को नज़रअंदाज़ किया जाए, तो यह न्याय के उद्देश्यों की पूर्ति नहीं करेगा। यहां तक कि गंभीर अपराधों के मामलों में भी न्याय में दया का तत्व बना रहना चाहिए,” — अदालत ने कहा।
⚖️ शर्त के साथ राहत — पत्नी और बच्चे का पालन-पोषण अनिवार्य
कोर्ट ने आरोपी को यह शर्त लगाकर राहत दी कि वह अपनी पत्नी और बच्चे को कभी न छोड़े और उन्हें जीवनभर सम्मानपूर्वक भरण-पोषण दे।
साथ ही, अदालत ने चेतावनी दी कि —
“यदि भविष्य में आरोपी इस शर्त का उल्लंघन करता है और यह अदालत के संज्ञान में लाया जाता है, तो परिणाम उसके लिए सुखद नहीं होंगे।”
के कुरुबाकरण बनाम तमिलनाडु राज्य आपराधिक अपील 679 वर्ष 2024
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