‘It is not legally acceptable to criminalise a civil dispute’: Important decision of the Supreme Court
यह निर्णय — Urmila Devi & Ors. v. Balram & Another (2025 INSC 915) — भारतीय दंड संहिता के तहत दायर एक दीर्घकालिक आपराधिक मामले को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने का महत्वपूर्ण उदाहरण है, जिसमें न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि केवल दीवानी विवाद को आपराधिक रंग देकर कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग नहीं किया जा सकता।
मामले की पृष्ठभूमि:
यह विवाद एक संपत्ति के दावे को लेकर दो दशक से लंबित था। मृतक वसीयतनामा निर्माता (Testator) ने अपने चार बहुओं के पक्ष में एक गैर-पंजीकृत वसीयत बनाई थी, ताकि उनके बेटे, विशेषतः तीसरे पुत्र की शराब की लत के कारण, संपत्ति की रक्षा की जा सके। मृत्यु के पश्चात तीसरे पुत्र ने उक्त संपत्ति पर अपना अधिकार जताते हुए एक पंजीकृत बिक्री विलेख (Sale Deed) शिकायतकर्ता के पक्ष में निष्पादित कर दिया।
जब बहुओं (आरोपी-अपीलकर्ता) ने वसीयत के आधार पर म्यूटेशन करवा लिया, तो शिकायतकर्ता ने आरोप लगाया कि यह वसीयत जाली है और संपत्ति को हड़पने के लिए षड्यंत्रपूर्वक बनाई गई है।
दायर धाराएँ:
शिकायत में IPC की धाराएँ 419 (छल से व्यक्तित्व की चोरी), 420 (धोखाधड़ी), 467/468 (जालसाजी), और 471 (जाली दस्तावेज का प्रयोग) शामिल थीं।
प्रक्रिया की दुरुपयोग पर न्यायालय की सख्त टिप्पणी:
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने स्पष्ट शब्दों में कहा:
“यह मामला एक और उदाहरण है जहाँ दीवानी विवाद को आपराधिक रंग देकर वर्षों तक आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग किया गया है।”
न्यायालय ने यह देखा कि:
- शिकायतकर्ता ने स्वयं म्यूटेशन के आदेश को चुनौती नहीं दी थी।
- वसीयत को प्रामाणिक मानते हुए बहुएँ संपत्ति में अपना अधिकार जता रही थीं।
- वसीयत मृतक जीवनकाल में बनाई गई थी, न कि बाद में फर्जी तरीके से।
- दीवानी समाधान की विफलता के बाद क्रिमिनल केस एक दबाव की रणनीति के रूप में लाया गया।
‘माधवराव सिंधिया बनाम संभाजीराव’ मामले का उद्धरण:
न्यायालय ने Madhavrao Jiwajirao Scindia vs. Sambhajirao Chandrojirao Angre (1988) का हवाला देते हुए कहा:
“जहाँ अंतिम सजा की संभावना नगण्य हो और आपराधिक कार्यवाही का कोई लाभ न हो, वहाँ ऐसे मामलों को न्यायालय द्वारा समाप्त कर देना चाहिए।”
‘भजनलाल केस’ के दिशानिर्देशों का अनुपालन:
कोर्ट ने State of Haryana v. Bhajan Lal (1992) के पैरा 102 के उप-पैराग्राफ 1, 3, 5 और 7 को लागू करते हुए कार्यवाही को रद्द किया। इन उपबिंदुओं में यह कहा गया है कि:
- जब एफआईआर में कोई अपराध घटित होता ही नहीं दिखता,
- या प्राथमिकी दायर करना नीतिहीन या दुर्भावनापूर्ण हो,
- तो ऐसे मामले क्वैश किए जाने चाहिए।
निर्णय का महत्व:
✅ दीवानी अधिकारों के लिए आपराधिक प्रक्रिया का दुरुपयोग रोकना:
यह निर्णय स्पष्ट करता है कि केवल इसलिए कि कोई पक्ष संपत्ति विवाद में हार गया हो, वह दूसरे पक्ष को जेल भिजवाने के लिए झूठे आपराधिक आरोप नहीं लगा सकता।
✅ दो दशक से लंबित कार्यवाही समाप्त:
कोर्ट ने देखा कि मामले को जानबूझकर घसीटा गया और यह केवल एक ‘सर्किटस टूल’ के रूप में प्रयुक्त किया गया।
✅ वसीयत में विश्वास करने वाले व्यक्ति को अपराधी नहीं ठहराया जा सकता:
यह एक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत है कि यदि कोई व्यक्ति प्रामाणिक रूप से एक वसीयत या दस्तावेज़ पर विश्वास करता है, तो केवल इसी आधार पर उसे अपराधी नहीं ठहराया जा सकता।
निष्कर्ष:
“किसी दीवानी विवाद को छल-कपट बताकर दंडात्मक प्रक्रिया शुरू करना कानून का अपमान है” — सुप्रीम कोर्ट ने इस फैसले के माध्यम से यह दोहराया कि आपराधिक कानून का उपयोग केवल उन मामलों में किया जाना चाहिए जहाँ स्पष्ट आपराधिक मंशा और कार्य हो। संपत्ति संबंधी विवादों को दीवानी प्रक्रिया से ही सुलझाना चाहिए।
