13 judges of Allahabad High Court against the order of the Supreme Court, demand to call a full court meeting – Controversy over Justice Prashant Kumar intensifies
इलाहाबाद हाईकोर्ट के 13 न्यायाधीशों ने सुप्रीम कोर्ट के एक हालिया आदेश के खिलाफ खुला मोर्चा खोलते हुए हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस अरुण भंसाली को फुल कोर्ट मीटिंग बुलाने का आग्रह किया है। इन जजों ने इस बाबत एक हस्ताक्षरित पत्र लिखा है, जो सोशल मीडिया पर वायरल हो चुका है। हालांकि, इस पत्र की कोई आधिकारिक पुष्टि अभी तक नहीं हुई है।
🔹 विवाद की जड़
4 अगस्त 2025 को सुप्रीम कोर्ट की डिवीजन बेंच (जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस आर महादेवन) ने कठोर आदेश देते हुए कहा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस प्रशांत कुमार को उनके सेवानिवृत्ति तक आपराधिक मामलों की सुनवाई से हटा दिया जाए और उन्हें एक वरिष्ठ जज के साथ डिवीजन बेंच में बैठाया जाए।
यह आदेश उस फैसले के बाद आया, जिसमें जस्टिस प्रशांत कुमार ने कहा था कि दीवानी विवादों में धन की वसूली के लिए आपराधिक अभियोजन भी एक वैकल्पिक उपाय हो सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने इस टिप्पणी को गंभीरता से लेते हुए उनके खिलाफ कड़ी टिप्पणी की थी।
🔹 13 जजों का रुख
वायरल पत्र में 13 जजों ने जस्टिस प्रशांत कुमार का समर्थन करते हुए कहा है कि—
- 4 अगस्त का आदेश बिना नोटिस जारी किए और न्यायाधीश को सुने बिना पारित किया गया।
- इसमें विद्वान न्यायाधीश के खिलाफ कठोर निष्कर्ष शामिल हैं।
- सुप्रीम कोर्ट के पास हाईकोर्ट पर प्रशासनिक अधीक्षण का अधिकार नहीं है, इसलिए आदेश का पालन न करने का संकल्प फुल कोर्ट द्वारा पारित किया जाना चाहिए।
- फुल कोर्ट को इस आदेश के स्वर और भाव पर अपनी आपत्ति दर्ज करनी चाहिए।
🔹 पृष्ठभूमि मामला — M/s Shikhar Chemicals बनाम State of U.P.
- यह मामला एक मजिस्ट्रेट द्वारा आईपीसी की धारा 405 (आपराधिक विश्वास भंग) के तहत तलब आदेश से शुरू हुआ।
- आरोपी ने इसे दीवानी विवाद बताते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट में सम्मन रद्द करने की याचिका दायर की, जिसे 5 मई 2025 को खारिज कर दिया गया।
- इसके बाद मामला अनुच्छेद 136 Article 136 के तहत सुप्रीम कोर्ट पहुंचा, जहां से 4 अगस्त 2025 को आदेश आया।
- सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई का आदेश रद्द करते हुए सुनवाई एक अन्य जज को सौंपने का निर्देश दिया।
🔹 स्थिति
फिलहाल, इस पत्र की प्रामाणिकता को लेकर कोई आधिकारिक बयान नहीं आया है, लेकिन यह विवाद न्यायपालिका के भीतर सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के प्रशासनिक अधिकारों की सीमाओं पर बहस को गर्मा रहा है।
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