The Supreme Court upheld the sentence of life imprisonment in the case of murder of the fiancée and allowed him to seek pardon under Article 161
यह निर्णय शुभा बनाम कर्नाटक राज्य निर्णय दिनांक: 14 जुलाई 2025 भारतीय दंड न्यायशास्त्र और दया याचिका अधिकारों के दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण निर्णय है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने: अपीलकर्ताओं (‘अभियुक्तों’) की आजीवन कारावास की सजा को चुनौती देने वाली अपील में, जेजे एमएम सुंदरेश और जेजे अरविंद कुमार की खंडपीठ ने अभियुक्तों की दोषसिद्धि और सजा को बरकरार रखा।
प्रमुख बिंदु:
- दोषसिद्धि और सज़ा की पुष्टि:
न्यायालय ने आरोपी महिला सहित चारों अभियुक्तों की दोषसिद्धि को बरकरार रखा, जिसमें षड्यंत्र और हत्या (IPC 120B व 302) शामिल हैं। - मानसिक स्थिति और सामाजिक दबावों की विवेचना:
अदालत ने यह स्वीकारा कि यह अपराध “जन्मजात अपराधियों” द्वारा नहीं, बल्कि एक “खतरनाक रोमांच” और “निर्णय की त्रुटि” से प्रेरित था, जो सामाजिक दबावों और व्यक्तिगत असंतोष से उपजा था—विशेष रूप से एक युवा महत्वाकांक्षी महिला के लिए जबरन तय की गई सगाई के संदर्भ में। - प्रेरणा और संबंधों का मूल्यांकन:
- आरोपी महिला और सह-अभियुक्त 1 के बीच संबंधों को संदेह की दृष्टि से देखा गया। अदालत ने कहा कि अभियुक्तों के बीच संवाद बहुत ज़्यादा थे, जिनका एक अलग पैटर्न था, एक के बाद एक और यहाँ तक कि रात के अजीबोगरीब समय में भी। घटना की तारीख़ और उससे एक दिन पहले अचानक संवादों में वृद्धि, और फिर दुर्भाग्यपूर्ण घटना वाली रात और उसके बाद के दिनों में अचानक संवादों में कमी, लगातार अभियुक्तों के अपराध की ओर ही इशारा करती है और मृतक की हत्या के लिए रची गई साज़िश के सबूत के तौर पर काम करती है।
- कॉल डिटेल रिकॉर्ड (CDR) ने एक संगठित षड्यंत्र का संकेत दिया। न्यायालय ने कहा कि यद्यपि सीडीआर डेटा को ठोस साक्ष्य नहीं माना जा सकता, फिर भी इसका उपयोग उचित पुष्टिकरण के लिए किया जा सकता है। न्यायालय ने कहा कि सीडीआर से पता चलता है कि घटना से पहले, घटना के दिन और घटना के बाद अभियुक्तों के बीच व्यापक संचार का आदान-प्रदान हुआ।
- दया याचिका का मार्ग प्रशस्त किया गया (अनुच्छेद 161):
अदालत ने कहा कि अभियुक्तों के आचरण को उचित नहीं ठहराया जा सकता, परंतु यह भी माना कि वे जन्म से अपराधी नहीं थे। अतः उन्होंने राज्यपाल के समक्ष क्षमादान की याचिका दायर करने के लिए 8 सप्ताह की अवधि दी और निर्देश दिया कि:- जब तक याचिका पर विचार न हो, अभियुक्तों को गिरफ्तार न किया जाए, और
- सजा को निलंबित रखा जाए।
विधिक महत्व:
- यह निर्णय स्पष्ट करता है कि सर्वोच्च न्यायालय केवल पुनरीक्षण के स्तर पर दोषसिद्धि को बनाए रखते हुए भी सज़ा से संबंधित संवेदनशील संतुलन बना सकता है।
- यह केस यह भी दर्शाता है कि अदालतें सामाजिक संदर्भों, मानसिक उथल-पुथल, और अवांछित पारिवारिक दबावों को सज़ा निर्धारण में महत्वपूर्ण मानती हैं।
- न्यायालय द्वारा अनुच्छेद 161 के तहत क्षमादान की संभावनाओं को खुला रखने से यह सिद्ध होता है कि दया का सिद्धांत न्याय के अंतिम शस्त्र के रूप में जीवित है।
मामला: शुभा बनाम कर्नाटक राज्य
