CJI ने वकील को लगाई फटकार: ‘क्या जस्टिस वर्मा आपके दोस्त हैं?’ — सुप्रीम कोर्ट में वकील की भाषा पर नाराज़गी

CJI reprimanded the lawyer: ‘Is Justice Verma your friend?’ — Anger over lawyer’s language in Supreme Court

नई दिल्ली, सुप्रीम कोर्ट — सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय में उस समय एक असाधारण स्थिति उत्पन्न हो गई जब वकील मैथ्यूज नेदुमपारा को मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पीठ (जहां आज न्यायाधीश बी.आर. गवई पीठ के प्रमुख थे) ने फटकार लगाई। मामला था इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ एफआईआर की मांग को लेकर दायर याचिका का, लेकिन बहस के दौरान वकील की भाषा शैली ही केंद्रबिंदु बन गई।

न्यायमूर्ति को ‘वर्मा’ कहने पर सीजेआई नाराज़

वकील नेदुमपारा ने बहस के दौरान जब जस्टिस यशवंत वर्मा को सिर्फ “वर्मा” कहकर संबोधित किया, तो CJI बी.आर. गवई ने कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा:

“क्या जस्टिस वर्मा आपके मित्र हैं? वह अभी भी उच्च न्यायालय के न्यायाधीश हैं। आप उन्हें इस तरह कैसे संबोधित कर सकते हैं?”

CJI ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि वकील की यही शैली रही तो अदालत याचिका को तुरंत खारिज करने से भी पीछे नहीं हटेगी।

सॉलिसिटर जनरल की भी तीखी प्रतिक्रिया

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी इस भाषा को अनुचित बताया और कहा कि “जब तक कोई व्यक्ति न्यायिक पद पर है, तब तक उसे पूरा सम्मान मिलना चाहिए।”

पृष्ठभूमि: क्या है न्यायमूर्ति वर्मा का मामला?

मार्च 2024 में दिल्ली हाईकोर्ट में तैनात न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा के सरकारी आवास पर आग लगने की घटना के दौरान, दमकल और पुलिसकर्मियों को प्लास्टिक की थैलियों में अधजली बड़ी मात्रा में नकदी मिली थी। इस मामले की जांच के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा गठित तीन सदस्यीय समिति ने प्रारंभिक रूप से जस्टिस वर्मा को जिम्मेदार ठहराया था, जिसके बाद उनका तबादला इलाहाबाद हाईकोर्ट कर दिया गया।

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वर्मा ने इस ट्रांसफर आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे रखी है।

नेदुमपारा की याचिका में क्या मांग की गई है?

वरिष्ठ अधिवक्ता मैथ्यूज नेदुमपारा ने याचिका में कहा है कि इतनी बड़ी मात्रा में नकदी की बरामदगी, भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम और धन शोधन निवारण अधिनियम (PMLA) के तहत गंभीर संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आती है। उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से दिल्ली पुलिस को एफआईआर दर्ज करने का निर्देश देने की मांग की है।

हालांकि, वे स्वयं भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के के. वीरास्वामी बनाम भारत संघ (1991) के ऐतिहासिक फैसले के अनुसार, किसी न्यायाधीश के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करने के लिए भारत के मुख्य न्यायाधीश की अनुमति आवश्यक है

निष्कर्ष

यह मामला केवल न्यायिक आचरण और पारदर्शिता से ही नहीं, बल्कि अदालत में मर्यादित भाषा और सम्मानजनक संबोधन की आवश्यकता को लेकर भी एक महत्वपूर्ण उदाहरण बनकर उभरा है। सुप्रीम कोर्ट की आज की प्रतिक्रिया यह स्पष्ट करती है कि न्यायपालिका की गरिमा के प्रति सम्मान याचिका की गंभीरता से कहीं अधिक प्राथमिकता रखता है।


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