इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश में गौ-संरक्षण के नाम पर बढ़ती मॉब लिंचिंग और अवैध एफआईआर पर राज्य सरकार को फटकार लगाई। कोर्ट ने कहा—गौरक्षा के नाम पर अराजकता फैलाना कानून के शासन के लिए खतरनाक है, अधिकारियों से तीन सप्ताह में जवाब मांगा।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की योगी सरकार को फटकार: गौ-रक्षा के नाम पर अराजकता कानून के शासन के लिए खतरा
🧑⚖️ इलाहाबाद हाईकोर्ट की सख्त टिप्पणी — “गौ-रक्षा के नाम पर अराजकता फैलाना कानून के शासन के लिए खतरनाक”
इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को एक बार फिर सख्त लहजे में फटकार लगाई है। अदालत ने कहा कि गौ-रक्षा के नाम पर भीड़ द्वारा हिंसा या अराजकता फैलाना लोकतांत्रिक कानून व्यवस्था के लिए बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। कोर्ट ने राज्य सरकार से पूछा कि आखिर क्यों गौ-हत्या निवारण अधिनियम के तहत बार-बार आकस्मिक और अनुचित प्राथमिकी दर्ज की जा रही हैं।
यह टिप्पणी न्यायमूर्ति अब्दुल मोइन और न्यायमूर्ति अवधेश कुमार चौधरी की खंडपीठ ने राहुल यादव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य मामले की सुनवाई के दौरान की। प्रतापगढ़ निवासी राहुल यादव ने अपने खिलाफ दर्ज FIR को रद्द करने की मांग की थी। एफआईआर में उन पर आरोप था कि वे गोवंश को वध के लिए ले जा रहे थे।
🐄 कोर्ट ने कहा – “गोवंश को ले जाना अपराध नहीं, जब तक वध का उद्देश्य सिद्ध न हो”
अदालत ने तथ्यों पर गौर करते हुए पाया कि पशु जीवित मिले थे और ऐसा कोई सबूत नहीं था कि उन्हें राज्य से बाहर वध के लिए ले जाया जा रहा था। इसलिए, अदालत ने कहा कि यह मामला ‘गौ-हत्या निवारण अधिनियम, 1955’ की धारा 5A के तहत अपराध नहीं बनता।
कोर्ट ने अपने पूर्ववर्ती निर्णय “कालिया बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023)” का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि राज्य के भीतर गोवंश को लाना या ले जाना अपराध तभी है जब वध का इरादा सिद्ध हो। अन्यथा, ऐसी एफआईआर दर्ज करना कानून का गलत प्रयोग है।
📜 अदालत ने कहा – “एफआईआर की बाढ़ दर्शाती है कानून के दुरुपयोग की प्रवृत्ति”
पीठ ने टिप्पणी की कि अदालत के सामने ऐसे मामलों की “बाढ़” आ चुकी है, जहां पुलिस और शिकायतकर्ताओं द्वारा मनमाने ढंग से एफआईआर दर्ज की जा रही हैं। अदालत ने इसे “अधिनियम के प्रावधानों को लागू करने में लापरवाही” करार दिया।
🧾 प्रमुख सचिव (गृह) और DGP से मांगा व्यक्तिगत हलफनामा
अदालत ने उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव (गृह) और पुलिस महानिदेशक (DGP) को तीन सप्ताह के भीतर व्यक्तिगत हलफनामा दाखिल करने का आदेश दिया है।
इस हलफनामे में राज्य सरकार को स्पष्ट करना होगा —
- ऐसी आकस्मिक एफआईआर बार-बार क्यों दर्ज की जा रही हैं?
- “तहसीन एस. पूनावाला बनाम भारत संघ (2018)” में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मॉब लिंचिंग रोकने के लिए दिए गए निर्देशों के अनुपालन में क्या कार्रवाई की गई?
कोर्ट ने यह भी पूछा कि राज्य सरकार यह सुनिश्चित करने के लिए सरकारी आदेश (GO) क्यों न जारी करे कि भविष्य में गौ-हत्या अधिनियम के तहत बिना ठोस सबूत के एफआईआर दर्ज न की जाए।
अदालत ने चेतावनी दी — यदि निर्धारित समय में हलफनामा दाखिल नहीं किया गया, तो दोनों वरिष्ठ अधिकारी स्वयं कोर्ट के समक्ष उपस्थित होने के लिए बाध्य होंगे।
⚖️ कानूनी और सामाजिक महत्व
यह आदेश न केवल कानूनी प्रक्रिया के दुरुपयोग पर रोक लगाने का संकेत देता है, बल्कि यह भी स्पष्ट करता है कि राज्य की कानून व्यवस्था भीड़तंत्र के आगे झुक नहीं सकती।
सुप्रीम कोर्ट के तहसीन पूनावाला मामले की भावना को दोहराते हुए इलाहाबाद हाईकोर्ट ने कहा है कि भीड़ के हाथों न्याय नहीं, बल्कि संविधान और कानून का शासन ही सर्वोच्च है।
📌 निष्कर्ष:
इलाहाबाद हाईकोर्ट का यह निर्णय एक महत्वपूर्ण नजीर है, जो यह याद दिलाता है कि गौ-रक्षा के नाम पर हिंसा या मनमानी न तो धार्मिक आस्था का सम्मान है, न कानून का पालन। अदालत ने स्पष्ट कर दिया है कि कानून का शासन ही सर्वोपरि है — न कि भीड़ का।
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