सुप्रीम कोर्ट: मौत की सज़ा पर पुनर्विचार संभव, अनुच्छेद 32 के तहत नई सुनवाई का आदेश

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अनुच्छेद 32 के तहत मौत की सज़ा पर पुनर्विचार संभव है। कोर्ट ने दोषसिद्धि बरकरार रखते हुए सज़ा निर्धारण के लिए Manoj बनाम मध्यप्रदेश (2023) में तय गाइडलाइंस के अनुसार नई सुनवाई का आदेश दिया।

सुप्रीम कोर्ट: मौत की सज़ा पर पुनर्विचार संभव, अनुच्छेद 32 के तहत नई सुनवाई का आदेश

पृष्ठभूमि

सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ – जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस संजय करोल और जस्टिस संदीप मेहता – ने एक अहम फैसले में स्पष्ट किया है कि अनुच्छेद 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट मौत की सज़ा पर पुनर्विचार कर सकती है, भले ही दोषसिद्धि और सज़ा पहले ही अंतिम रूप से तय हो चुकी हो। यह फैसला Manoj बनाम मध्यप्रदेश (2023) में तय किए गए दिशा-निर्देशों की पृष्ठभूमि में आया है।

यह मामला नागपुर का है, जिसमें 2008 में एक चार वर्षीय बच्ची से दुष्कर्म और हत्या के दोषी को मौत की सज़ा सुनाई गई थी। ट्रायल कोर्ट और हाईकोर्ट ने सज़ा बरकरार रखी और 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने भी दोषसिद्धि व मृत्युदंड की पुष्टि की। दोषी की पुनर्विचार याचिका और दया याचिकाएँ भी खारिज हो चुकी थीं।

दोषी की दलील

दोषी ने दलील दी कि 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने Manoj केस में सज़ा निर्धारण से जुड़ी अनिवार्य प्रक्रियात्मक गाइडलाइंस जारी की थीं। इनमें कहा गया था कि ट्रायल कोर्ट और राज्य सरकार को दोषी की मानसिक, सामाजिक, आर्थिक और जेल आचरण संबंधी रिपोर्ट पेश करनी होगी ताकि व्यक्तिगत परिस्थितियों के आधार पर उचित सज़ा तय हो सके।

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चूँकि उसके मामले में ये प्रक्रियाएँ अपनाई नहीं गईं, इसलिए उसने अनुच्छेद 32 के तहत याचिका दायर कर सज़ा पर पुनर्विचार की मांग की।

केंद्र और राज्य की आपत्तियाँ

सरकारी वकीलों ने तर्क दिया कि दोषी की याचिका एक बार तय हो चुके फैसले को दोबारा खोलने का प्रयास है। उन्होंने कहा कि दोषी की पुनर्विचार याचिका पहले ही खारिज हो चुकी है और उसकी दया याचिकाएँ भी राष्ट्रपति और राज्यपाल द्वारा अस्वीकार की जा चुकी हैं, इसलिए अब अनुच्छेद 32 के तहत सुनवाई संभव नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट का विश्लेषण

जस्टिस विक्रम नाथ की राय

  • जस्टिस नाथ ने कहा कि मौत की सज़ा का मामला सामान्य मामलों से अलग होता है क्योंकि इसमें व्यक्ति का जीवन दांव पर होता है।
  • अनुच्छेद 32 संविधान का मूल अधिकार है और इसका इस्तेमाल उन मामलों में भी किया जा सकता है जहाँ अन्य उपाय समाप्त हो चुके हों, यदि जीवन और समानता के अधिकार (अनुच्छेद 14 और 21) का उल्लंघन दिखे।
  • Manoj केस के दिशा-निर्देश अब आवश्यक संवैधानिक प्रक्रिया का हिस्सा बन चुके हैं और इनका पालन न करना दोषी के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होगा।
  • हालांकि उन्होंने चेतावनी दी कि अनुच्छेद 32 का दुरुपयोग कर बार-बार पुरानी सज़ाओं को खोलना नहीं होना चाहिए।

जस्टिस संजय करोल की सहमति

  • जस्टिस करोल ने कहा कि न्यायिक घोषणाएँ आमतौर पर पश्चदृष्टि (retrospective) में लागू होती हैं।
  • इसलिए Manoj केस में तय गाइडलाइंस दोषी पर भी लागू होंगी, भले ही उसका मामला 2017 में खत्म हो चुका हो।
  • उन्होंने कहा कि “जब अनुच्छेद 21 का सवाल हो और मौत की सज़ा सामने हो, तब अनुच्छेद 32 का दरवाज़ा बंद नहीं किया जा सकता।”
  • इस आधार पर उन्होंने दोषी की याचिका को पूरी तरह बनाए रखने योग्य माना।
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कोर्ट का निष्कर्ष

सुप्रीम कोर्ट ने दोषसिद्धि को यथावत रखा लेकिन मौत की सज़ा पर पुनः सुनवाई का आदेश दिया। अब दोषी की सज़ा तय करने के लिए नया सुनवाई चरण होगा जिसमें Manoj केस की गाइडलाइंस के तहत विस्तृत रिपोर्टें और परिस्थितियाँ विचार में ली जाएँगी।

मामले को आगे की कार्रवाई के लिए मुख्य न्यायाधीश के समक्ष सूचीबद्ध करने का निर्देश दिया गया।


कानूनी महत्व

यह फैसला बताता है कि:

  1. मौत की सज़ा जैसे असाधारण मामलों में प्रक्रियात्मक न्याय (procedural fairness) सर्वोच्च है।
  2. सुप्रीम कोर्ट का अनुच्छेद 32 के तहत असाधारण अधिकार जीवन और समानता की रक्षा के लिए सक्रिय रहेगा।
  3. Manoj केस ने भारतीय दंड न्यायशास्त्र में मौत की सज़ा निर्धारण की प्रक्रिया को नया मानक दिया है।

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